Thursday, October 15, 2009

जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया


एक शायर है शकेब जलाली. सारे बड़े लोगों की तरह इस दुनिया को कुल जमा 32 साल तक नवाज़ा. इन सालों में ही जो कुछ शकेब कर गए, दुनिया में सौ-सौ बरस तक जीकर भी बहुत लोग नहीं कर पाए.


यूं तो शायर की पहचान उसकी शायरी है, मगर कुछ अता-पता मालूम रहे तो अपनापा ज़रा ज़्यादा महसूस होता है. सो नोट कर लें. पैदाइश अलीगढ़ के कस्बे जलाली में तारीख 1 अक्टूबर 1934 को. असल नाम सैयद हसन रिज़वी. कलमी नाम - शकेब जलाली. बदायूं से मैट्रिक तक की तालीम. बंटवारे का शिकार होकर पाकिस्तान चले गए, जहां बी.ए.पास किया. शादी की. जीने को नौकरियां की. पैसे की और ज़माने की तमाम दुश्वारियां झेलीं. दुश्वारियों ने उंगली पकड़कर दुनिया को एक नए रंग में देखने वाली नज़र दी. शकेब ने इस नज़र को ग़ज़लों की शक्ल दे दी जिससे हर कोई देख सकता है.


कहा जाता है कि शकेब ने 15 साल की उम्र से ही शेर कहना शुरू कर दिया था. इसकी कोई खास ख़बर नहीं कि वो लिखा हुआ क्या है. अब तो जो दिखाई देता है वो तो न जाने कितने इंसानों की कुल जमा उम्र के बराबर का दिखाई देता है. आज की नस्ल की नई शायरी पर छाया शकेबाना अन्दाज़ इस बात का एक पायेदार सबूत है.


12 नवम्बर 1966 को रेल पटरी पर जाकर जिस वक़्त शकेब ने जान दी, तब मैं उनकी हस्ती से बेखबर था. सच तो यह है कि वह उम्र बेखबरी की ही थी. इस क़दर कि अपनी भी कुछ ख़बर न थी. कुछ साल पहले मंज़ूर भाई (मंज़ूर एहतेशाम) ने पहली बार कुछ शेर सुनाए. दीवानगी ऐसी तारी हुई कि शकेब की हर चीज़ पढ़ लेने पर उतारू हो गया. पहले तो सिर्फ एक मजमूआ रौशनी ऎ रोशनी ही मौजूद था पर बाद में लाहौर से कुलियाते शकेब जलाली भी आ गया है. अभी मुझ तक नहीं पहुंचा है मगर बहुत देर भी नहीं है उसके आने में.


फिलहाल कुछ शेर, कुछ ग़ज़लें हाज़िर हैं.

1.

वहां की रोशनियों ने भी ज़ुल्म ढाये बहुत

मैं उस गली में अकेला था और साये बहुत


किसी के सर पे कभी टूटकर गिरा ही नहीं

इस आसमां ने हवा में क़दम जमाए बहुत


हवा की रुख़ ही अचानक बदल गया वरना

महक के काफिले सहरां की सिम्त आए बहुत


ये क़ायनात है मेरी ही ख़ाक का ज़र्रा

मैं अपने दश्त से गुज़रा तो भेद पाए बहुत


जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया

तो हम भी राह से कंकर समेट लाए बहुत


बस एक रात ठहरना है क्या गिला कीजे

मुसाफिरों को ग़नीमत है ये सराय बहुत


जमी रहेगी निगाहों पे तीरगी दिन भर

कि रात ख़्वाब में तारे उतर के आए बहुत


शकेब कैसी उड़ान अब वो पर ही टूट गए

कि ज़ेरे-दाम जब आए थे फड़फड़ाए बहुत

2.

हमजिंस अगर मिले न कोई आसमान पर

बेहतर है ख़ाक डालिए ऐसी उड़ान पर


आकर गिरा था कोई परिन्दा लहू से तर

तस्वीर अपनी छोड़ गया है चट्टान पर


पूछो समन्दरों से कभी ख़ाक का पता

देखो हवा का नक़्श कभी बादबान पर


यारों मैं इस नज़र की बलंदी का क्या करूं

साया भी अपना देखता हूं आसमान पर


कितने ही ज़ख्म मेरे एक ज़ख्म में छिपे

कितने ही तीर आन लगे इक निशान पर


जल-थल हुई तमाम ज़मीं आसपास की

पानी की बूंद भी न गिरी सायबान पर


मलबूस ख़ुशनुमा है मगर खोखले हैं जिस्म

छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर


हक़ बात आके रुक सी गई थी कभी शकेब

छाले पड़े हुए हैं अभी तक ज़बान पर

और आखिर में एक शेर :


तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूं

आंखों को अब न ढांप मुझे डूबता भी देख

8 comments:

  1. sशाकेव साहिब को विनम्र श्रद्धाँजेली और आपका धन्यवाद इस लाजवाब गज़ल और उनके परिचय के लिये दीपावली की शुभकामनाये़

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  2. ऐसे-ऐसे गुमनाम फ़नकारों की जानकारी आप देते हैं कि तबियत खुश हो जाती है. कितने बेहतरीन शायर थे शकेब साहब. दुष्यंत कुमार की याद हो आई..

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  3. शकेब जी की बेहतरीन गज़लों के साथ आपने उनका यह परिचय यहाँ प्रस्तुत किया है । आप जैसे कदरदान लोगों से ही यह उम्मीद की जा सकती है कि ऐसी हस्तियों को प्रकाश में लायें जिनके अदब से हमारी विरासत पुख़्ता होती है । शकेब जलाली की गज़लों का लिप्यांतरण श्री मंज़ूर एहतेशाम के साथ श्री लीलाधर मंडलोई ने भी किया है ।

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  4. Keswani ji, gumnam kavi se parichay karane ke lie shukriya. aage bhi inka kuchh milta rahega hi...

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  5. आदरणीय केसवानीजी! शकेब जी से परिचय के लिए धन्यवाद्! मैं जगजीत सिंह जी का प्रशंसक हूँ. और इस मौके पर बताना चाहता हूँ कि शकेब साहेब की एक ग़ज़ल जगजीत सिंह जी ने गाई है. कुछ इस तरह है: जहाँ जहाँ मुझे सेहरा दिखाई देता है, मेरी तरह से अकेला दिखाई देता है, (from beyond time).

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  6. खूबसूरत ग़ज़ले आपने बांटी..शकेब साहब की..कुछ ग़ज़लें कभी पढ़ी थी उनकी..कुछ शेर कहीं अटके रह गये थे स्मृति की डोर मे.ीक शायद कुछ ऐसा
    आ के पत्थर सहन मे मेरे दो-चार गिरे
    लेकिन उस पेड़ के फ़ल सब पसे दीवार गिरे

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  7. Janab ap ke zariye Shakeb Sb ne rula diya.Bas ik khayal aya hai
    Doobte huye haath sahil ko pukar kar reh gaye
    Ah yoh tinka bhe na tha jise hamne safina jana
    shaffkat

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  8. Janab apke zariye Shakeb Sb ne rula diya.bas ik khayal araha hai
    Doobte huye haath sahil ko pukar kar reh gaye
    Ah yoh tinka bhi na tha jise hamne safina jana
    shaffkat

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